नैतिक शिक्षा के प्रथम जनक -
अगर भारतवर्ष में नैतिक शिक्षा के जनक ढूढेंगे तो बहुत से है लेकिन सर्व प्रथम जिसका भाव हमारे अन्तर्मन में प्रकट होता है वो है श्री राम के गुरु, गुरु वशिष्ठ जी।
वशिष्ठ अर्थात -
वश - Control - काबू करना, वश में करना -
शिष्ठ - Polite - शांत
तो अर्थ समझ सकते है कि इच्छा, क्रोध, भय, मोह इत्यादि पर काबू रखने वाला। श्री गुरु वशिष्ठ में अपने नाम के अनुसार गुण भी थे
जिनमे से कुछ इस प्रकार है -
- ऋषि वशिष्ठ कभी क्रोधित नहीं होते थे।
- ऋषि वशिष्ठ हमेशा प्रसन्न रहते थे। जो गुरु की सबसे ऊंची स्थिति है,
- ऋषि वशिष्ठ संयमित रहकर जीवन जीते थे।
- विश्वामित्र ने इनके 100 पुत्रों को मार दिया था, फिर भी इन्होंने विश्वामित्र को क्षमा कर दिया।
- वशिष्ठ जी महा तेजस्वी, त्रिकालदर्शी, पूर्णज्ञानी, महातपस्वी, शस्त्र शास्त्र के ज्ञाता और योगी थे।
- वे ब्रह्मशक्ति के मूर्तिमान स्वरूप थे, मंत्र यज्ञ विद्या के वे जानकार थे।
- लोगों की वृत्ति बदलवाकर राष्ट्रों का नव निर्माण करने वाले थे।
- वशिष्ठ की कार्य शक्ति अलौकिक थी।
- वे केवल ज्ञानी ही नहीं थे वल्कि ज्ञान उनके रोम-रोम में उतरा हुआ है।
ऐसे अनन्य गुण है। अगर आप चाहे तो गुरु वशिष्ठ की श्री राम को दी गयी नैतिक शिक्षा या अपने शिष्य श्री राम के साथ आपस की बातचीत - जिसे योगवशिष्ठ कहा गया है, उस योगवशिष्ठ को पृथ्वी के हर मनुष्य को पढ़ना और समझना चाहिए, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का हो।
नैतिक शिक्षा के दूसरे जनक -
नैतिक शिक्षा के दूसरे जनक के रूप में जिन्हे हम देखते है वे है श्री आदि शंकराचार्य जी। क्युकी उनकी पुस्तक विवेक चूड़ामणि सम्पूर्ण भेदभाव को नष्ट करने वाली है।
विवेक चूड़ामणि को श्री आदि शंकराचार्य के सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक माना जाता है और विद्वानों और आध्यात्मिक साधकों द्वारा समान रूप से इसका व्यापक रूप से अध्ययन और सम्मान किया जाता है।
शीर्षक "विवेकचूड़ामणि" का अर्थ है "भेदभाव का शिखा रत्न" अर्थात
भेदभाव से परे ऐसा विवेक जिसे हर मनुष्य चूड़ामणि की तरह सिर पर धारण कर सके।
(चूड़ामणि सिर पर धारण करने वाला गहना या रत्न होता है)
और पाठ आध्यात्मिक मुक्ति या मोक्ष के लिए एक व्यापक मार्गदर्शक है। इसमें 580 श्लोक या सूत्र हैं, जो एक शिक्षक और एक छात्र के बीच संवाद के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। पाठ स्वयं और ब्रह्मांड की प्रकृति का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए व्यावहारिक सलाह प्रदान करता है।
नैतिक शिक्षा के तीसरे जनक -
नैतिक शिक्षा के तीसरे जनक के रूप में हम स्वामी विवेकानंद गुरु जी को देते है। स्वामी विवेकानंद ने कर्म योग के महत्व को बताया था। उन्होंने बताया कि कर्म योग का अर्थ होता है कर्म करते हुए भगवान की प्राप्ति करना। वह कहते थे कि कर्म योग एक ऐसा मार्ग है जिसमें मनुष्य अपने कर्मों से सुधार करते हुए भगवान की शरण में जाने का अवसर प्राप्त करता है।
उन्होंने कहा था कि कर्म योग का महत्व उस तरीके से है जिसमें योगी को दुनियावी जीवन में कर्म करने का अवसर मिलता है और उससे जुड़े अधिकतम दुखों का सामना करने का मौका मिलता है। स्वामी विवेकानंद का कहना था कि कर्म योग द्वारा मनुष्य अपने आत्मा को उन्नति के मार्ग पर ले जाता है।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि कर्म योग वह मार्ग है जिससे मनुष्य अपने कर्तव्यों के माध्यम से अपनी आत्मा का संगठन कर सकता है। वह कहते थे कि कर्म योग के माध्यम से मनुष्य अपने आप में जान सकता है और दूसरों के सहयोग से संसार के समस्त दुःखों से मुक्त हो सकता है।
नैतिक शिक्षा के चौथे जनक -
गौतम बुद्ध - बुद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध नैतिक शिक्षा के प्रवर्तक माने जाते हैं। उन्होंने अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह जैसे नैतिक मूल्यों का प्रचार किया था।
नैतिक शिक्षा के पांचवे जनक -
महावीर स्वामी - जैन धर्म के संस्थापक महावीर स्वामी भी नैतिक शिक्षा के जनक माने जाते हैं। उन्होंने जीवन का मूल्य और अहिंसा का महत्व समझाया था।
नैतिक शिक्षा के छठवे जनक -
कौटिल्य - आचार्य चाणक्य या कौटिल्य भारतीय नैतिकता के उन व्यक्तित्वों में से एक हैं, जिन्होंने नैतिक शिक्षा के बारे में लोगों को सिखाया था। उन्होंने अपनी ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' के माध्यम से लोगों को धन के संचय, न्याय, सत्य और स्वच्छता जैसे मुद्दों का समाधान करने के लिए नैतिक शिक्षा दी।
नोट - किसी को पहले नंबर या आखिरी नंबर पर रखने का अर्थ उनके बीच प्रतिस्पर्धा का भाव नहीं है। कोई न कोई किसी न किसी नंबर पर तो आएगा ही।
सनातन धर्म ने ऐसे किसी भी महापुरुष को नहीं अपनाया, जिसने जातिवाद का नाम लेकर ही जातिवाद फैलाया हो और सनातन धर्म से लोगो को तोडा हो या उनका बटवारा किया हो।
0 टिप्पणियाँ