ईर्ष्या और द्वेष ये व्यक्ति के मन के भाव है और अज्ञान स्वरुप पैदा होते है। जो व्यक्ति अज्ञानी होती है ये दोनों में से एक न एक भाव ज्यादातर देखने को मिल जाता है।
ईर्ष्या और द्वेष में अंतर समझने के लिए इनका अर्थ आपको पहले समझना चाहिए।
द्वेष -
आपने राग और द्वेष का नाम तो सुना ही होगा। राग के कारण जन्म लेती है अपेक्षाये और जब अपेक्षा टूट जाती है तो उत्पन्न होता है द्वेष ।
और ये भी सत्य है की अपेक्षाओ की नियति ही है टूट जाना । फिर वो आज टूटे या कल ।
तुम देखते हो, कुछ पति पत्नी कुछ समय बाद एक दूसरे से द्वेष रखने लगते हैं , यहाँ तक की माता पिता अपने पुत्रो से, और पुत्र अपने माता पिता से द्वेष भाव रखने लगते है।
अनुकूल परिस्थिति (जीवन में सुख) के आने पर हमें उसके साथ राग हो जाता है और हम चाहते हैं कि यह परिस्थिति हमेशा बनी रहे, कभी हमसे अलग न हो। अपेक्षाएं हो जाती है। यहाँ व्यक्ति सभी से प्रेम करता है।
इसी प्रकार प्रतिकूल परिस्थिति के आने पर हमें उसमे द्वेष होता है और हम चाहते हैं कि यह कभी न आए। ऐसा व्यक्ति सभी से नफरत और डर का भाव रखता है।
ऐसा व्यक्ति सामने वाले को हमेशा सिर्फ इसलिए झुकाने पर तुला रहता है की कही वो झुक गया तो सामने वाला उस पर सवार न हो जाए।
जबकि सत्य यह है की गुणवान व्यक्ति हमेशा पहले से ही हर किसी के आगे झुका हुआ या नतमस्तक रहता है।
उदाहरण - जैसे श्री कृष्ण भगवान का युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में आये सभी मेहमानो के चरण धोने का काम लेना। यह देखकर ईर्ष्यालु व्यक्तियों के हृदय सुलग उठे
ईर्ष्या -
ईर्ष्या रखने वाला व्यक्ति अपने ही प्रतिद्वंदी से शत्रुता कर बैठता है। विरोध और वैमनस्य या शत्रुता इतनी बढ़ जाती है की वह अपने प्रतिद्वंदी की जान भी लेने की योजना बनाता रहता है।
ऐसा ब्यक्ति ईर्ष्या अपने मन को सुखी या प्रसन्न करने के लिए करता है। लेकिन यह धोखेवाजी की चरमसीमा होती है जो द्वेष के बाद ईर्ष्या के द्वारा उत्त्पन्न होती है।
इस प्रकार के व्यक्ति से गलत कार्य हो जाता है , किसी-किसी व्यक्ति के हृदय से ईर्ष्या का पर्दा हटता है। लेकिन कुछ लोगो को गलत करने के बाद भी पता नहीं चल पता है।
ये एक मानसिक रोग है, जो ज्यादातर भगवान के नित्य जप से दूर रहते है उन्हें होता है।
उदाहरण - पांडवों से ईर्ष्या रखने वाला दुर्योधन जब युद्ध के बाद, पांडवों के पुत्रों के कटे हुए सर अश्वत्थामा के हाथ में देखता है तो ईर्ष्या का कुछ पर्दा हटता है और दुखी होकर प्राण त्याग देता है। अर्थात ईर्ष्या दूसरों को नहीं खुद को जलाती है।
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