श्राप का अर्थ - यह वह शक्ति है जो वर्षो की भक्ति और साधना से कमाई गयी आध्यात्मिक शक्ति होती है लेकिन जब क्रोध के आधीन होकर किसी के अहित के लिए इसका प्रयोग किया जाता है तो कमाई गई आध्यात्मिक शक्ति का क्षय हो जाता है।
जैसे दुर्वासा ऋषि बार बार क्रोध के आवेश में अपनी तपस्या का फल नष्ट कर लेते थे। श्राप वरदान का उल्टा होता है
पूर्व जन्म के श्राप -
बृहत पराशर होरा शास्त्र में चौदह प्रकार के श्रापों का उल्लेख मिलता है। पितृ श्राप, प्रेत श्राप, ब्राह्मण श्राप, मातृ श्राप, पत्नी श्राप, सहोदर श्राप, सर्व श्राप इत्यादि, इन श्रापों के कारण व्यक्ति जीवन में कष्ट झेलता है। इसका सबसे बड़ा समाधान निष्काम कर्म के द्वारा जीवन जीने से उन श्राप का असर कम अनुभव होता है।
कलियुग में क्यों नहीं लगता श्राप?
कलियुग में कोई भी मनुष्य पूर्णतया: श्रेष्ठ नहीं है. सभी मनुष्यों ने कभी ना कभी मन, वचन, कर्म से किसी ना किसी को चोट पहुंचाई है। शास्त्रों के अनुसार, झूठ बोलना भी पाप की श्रेणी में आता है. कलियुग में मनुष्य के कर्महीन होने के कारण उनके द्वारा कही गई बातें सच नहीं होती हैं. कर्महीन होने के कारण मनुष्य के तपोबल में कमी आई है, कलियुग में पाप अपनी चरम सीमा पर है, जिसके कारण श्राप का कोई असर नहीं होता है. लेकिन संतो का श्राप आज भी नहीं लेना चाहिए। संतो के लिए तो भगवान् स्वयं दौड़े दौड़े चले आते है।
किसका श्राप लगता है? -
जब कोई व्यक्ति शरीर वाणी मन और ह्रदय से पवित्र हो जाता है , तब स्वयं ईश्वर उसके शरीर में निवास करते है ,ऐसे समय आने पर ये लोग अपने आप समाज से दूर रहने लगते है, और ऐसे में जब इनके मुख से कोई बात अच्छी (वरदान) या बुरी (श्राप) निकल जाती है तो वह सच होने लगती है।
लेकिन जब इसे सोच समझकर दिया जाता है वह फलीभूत बहुत ही कम होता है, सिद्धो को छोड़कर, लेकिन जो शाप या वरदान आत्मा से अपने आप उत्पन्न होता है, वह निश्चित ही फल देता है । श्राप से मुक्ति के उपाय भी आसानी से उपलब्ध नहीं होते। क्युकी श्राप से मुक्ति के उपाय मिल जायेगे तो उसका महत्त्व ही ख़त्म हो जायेगा। शाप से मुक्ति के लिए निष्काम कर्म करते रहे।
शायद इसीलिए सिक्ख और हिन्दू धर्म में हलाल मांस खाना वर्जित है। क्युकी जीव तड़पते समय श्राप दे सकता है। जबकि झटका में ऐसी संभावना कम हो जाती है।
हालाँकि मांस खाना ठीक नहीं कहा गया है। इससे व्यक्ति अपने अंदर दया, क्षमा, विवेक को ख़त्म कर देता और बचता है क्रोध, ईर्ष्या, अविश्वास और भय।
लेकिन किसी देवता का प्रसाद समझ कर खाये तब इसका प्रभाव कम होता है जैसे बंगाल में कुछ लोग करते है, आदिवासी समाज के कुछ लोग अपने देवता या कुल देवता पर चढ़ाकर उसका सेवन करते है,
पर ध्यान रहे इसका प्रभाव कम होता है, खत्म नहीं होता।
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