एक समय की बात है| किसी देश में सत्यवीर नाम के एक राजा राज्य किया करते थे| वे बड़े सत्यवादी ,त्यागी ,ज्ञानी और स्वावलम्बी थे| उनके राज्य में प्रजा से जितना भी कर लिया जाता था ,वह सारा का सारा प्रजा की सेवा में ही लगा दिया जाता था| राजा सत्यवीर राज्य का एक भी पैसा अपने और अपनी पत्नी के ऊपर नहीं खर्च करते थे| वे अपने जीवन निर्वाह के लिए अलग से स्वयं खेती किया करते थे| राजा की पत्नी रानी होते हुए भी सदा जीवन व्यापन करती थी| वे पति और पत्नी सब प्राणियों को भगवान का स्वरुप मानकर निष्काम प्रेमभाव से उनकी सेवा किया करते थे|
एक दिन उनके राज्य में बहुत भारी मेला लगा| जिसमे आसपास के नगर व गांव के सभी लोग आये| बहुत से लोग राजा व रानी के बारे में सुनकर उनके दर्शन के लिए भी आया करते थे| एक दिन आभूषण व रेशमी वस्त्रों से सजी-धजी व्यापारी की पत्नी रानी के पास आयी और रानी की साधारण सी वेशभूषा देखकर चकित रह गई|
वह रानी से बोली - रानीजी आप इतने बड़े राज्य की महारानी होते हुए भी ऐसे वस्त्र धारण करती है ,इससे अच्छे वस्त्र तो हमारी दासियाँ पहनती है| आपके वस्त्र तो हम सब लोगों से बढ़कर होने चाहिए| आपके स्वामी तो बहुत बड़े सम्राट है ,अगर आप उनसे कहेंगी तो वे आपके लिए एक से बढ़कर एक वस्त्र और आभूषणों का प्रबंध कर देंगे| आप हमारी रानी है इसलिए हम आपको एक रानी के परिधान में ही देखना चाहते है| इस प्रकार कहकर वह व्यापारी की पत्नी चली गई|
रानी के ऊपर उस व्यापारी की पत्नी का बहुत गहरा प्रभाव हुआ| रात्रि के समय राजा आये तो रानी ने यह सारी घटना उन्हें सुनाई और उनसे निवेदन किया कि वे उनके लिए बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण माँगा दे|
तब राजा ने कहा -मैं इतने बहुमूल्य वस्त्र व आभूषण कैसे ला सकता हूँ? राज्य का धन तो मैं खर्च नहीं कर सकता तो फिर ये सब चीजें कैसे आएंगी| लेकिन रानी हट करने लगी कि उन्हें ये सब चाहिए ,चाहे आप कैसे भी लाये|
तब राजा के मन में एक विचार आया क्यों न मैं दुष्ट ,अधर्मी और अत्याचारी राजाओं से कर प्राप्त करूँ ,ऐसा करने से रानी की मनोकामना भी पूरी हो जाएगी और राज्य का धन भी नहीं खर्च होगा| यह सोचकर राजा ने अपने राज्य कर्मचारी को बुलाया और कहा - जाओ पड़ोसी राज्य के राजा चाण्डाल के पास जो कि एक राक्षस था और उससे कहो कि वो कर के रूप में सवामन सोना दे|
राजा के आदेश का पालन करते हुए वह राज्य कर्मचारी चाण्डाल के राज्य में पहुँचा और उसने राजा सत्यवीर के आदेश के बारे में उसे बताया, लेकिन उसने उस दूत को भला-बुरा कहकर वापस भेज दिया|
इस घटना के बारे में चाण्डाल ने जब अपनी पत्नी को बताया तो उसने कहा - स्वामी आपको उस दूत के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था और उसे सवामन सोना दे देना था क्योकि राजा सत्यवीर बहुत ही धर्मात्मा राजा है| परंतु चाण्डाल ने अपनी पत्नी की बातो को अनसुना कर दिया|
इधर उस दूत ने चाण्डाल के राज्य के बाहर मिटटी से उसी के राज्य की नकली रचना तैयार की और चाण्डाल के पास वापस गया| उसने कहा - अगर आप मुझे सोना नहीं देते है तो मैं केवल राजा सत्यवीर के नाम के प्रभाव से ही तुम्हारे राज्य को नष्ट कर सकता हूँ| दूत के इस प्रकार कहने से चाण्डाल हंसने लगा और बोला चलो देखते है कि तुम किस प्रकार मुझे और मेरे राज्य को नष्ट करते हो|
इतना कहकर चाण्डाल उस दूत के साथ अपने कुछ सभा के लोगों को लेकर चल दिया और उस रचना के पास पहुँच गया| जब उसने उस रचना को देखा तो यह चकित हो गया और बोला - यह तो मेरे राज्य की नकल है|
उस दूत ने कहा - हाँ , अब देखो मैं तुम्हारे महल के एक-एक भाग को राजा सत्यवीर की दुहाई देकर गिरता हूँ | जैसे ही दूत ने राजा सत्यवीर की दुहाई दी वैसे ही नकली रचना का द्वार गिर पड़ा ,इस द्वार के गिरते ही चाण्डाल के महल का द्वार गिर गया ,इसे देखकर चाण्डाल चकित रह गया| इस प्रकार दूत ने राजा की दुहाई देकर नकली रचना का एक-एक भाग गिराना शुरू किया इसके साथ-साथ असली राज्य की इमारत भी टूटने लगी|
यह सब देखकर चाण्डाल ने सोचा अगर मैंने इसे सवामन सोना नहीं दिया तो यह तो मेरे पूरे महल को ही गिरा देगा| तब चाण्डाल ने उस दूत को सवामन सोना देना स्वीकार कर लिया और अपने मंत्री को आदेश दिया कि इस दूत को आदर सहित महल में लाया जाये और उसे सवामन सोना देकर विदा किया जाये|
जब दूत राजा सत्यवीर के पास सवामन सोना लेकर महल पहुंचा तो राजा ने उससे पूँछा की यह सोना उसने कैसे प्राप्त किया तो दूत ने सारी घटना सुनाई| यह बात सुनकर रानी चकित हो गई और उसने राजा बिताते से पूँछा स्वामी यह कैसे हुआ| तो राजा ने कहा - हम लोग स्वावलम्बी होकर परिश्रमपूर्वक खेती करके अपना निर्वाह करते हुए वैराग्य और त्यागपूर्वक अपना जीवन है तथा निष्कामभाव से प्रजा की सेवा करते है, यह सब इसी का प्रभाव है| यह सब सुनकर रानी का मन बदल गया और वह पुन: अपना सादा जीवन व्यतीत करते हुए प्रजा की सेवा करने लगी|
इस कहानी से शिक्षा -
इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सभी लोगो को स्वावलम्बी होकर अपना जीवन निर्वाह और निष्कामभाव से दूसरो की सेवा करना चाहिए तथा थोड़ी देर का कुसंग भी मनुष्य के लिए बहुत हानिकारक होता है इसलिए ऐसे मनुष्यों से सदैव दूर रहना चाहिए|
0 टिप्पणियाँ