जानिये भीमपुत्र वीर घटोत्कक्ष और उनकी पत्नी अहिलवती के बारे में
महाभारत विश्व का सबसे बड़ा साहित्यिक ग्रंथ और हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं[अगर आप भीम और उनकी पत्नी हिडिम्बा के बारे में जान चुके है तो आगे क्या हुआ जानते है, यहाँ हम भीम और हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कक्ष के बारे में जानेगे.
भीम और हिडिम्बा का विवाह होने के पश्चात दोनों एक साथ एक वर्ष तक साथ रहे. इस समय उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। उत्पन्न होते समय उसके सिर पर केश (उत्कच) न होने के कारण उसका नाम घटोत्कच रखा गया। वह माँ हिडिम्बा की तरह अत्यन्त मायावी निकला और जन्म लेते ही बड़ा हो गया।
हिडिम्बा ने अपने पुत्र को पाण्डवों के पास ले जा कर कहा, "यह आपके भाई की सन्तान है अतः यह आप लोगों की सेवा में रहेगा।". हिडिम्बा ने कहा की जैसा की आपने विवाह के समय कहा था की आप केवल एक वर्ष मेरे साथ रहोगे। वो समय पूरा होने वाला है. में यही रहकर आपकी राह देखूँगी। इतना कह कर हिडिम्बा वहाँ से चली गई। घटोत्कच श्रद्धा से पाण्डवों तथा माता कुन्ती के चरणों में प्रणाम कर के बोला, "अब मुझे मेरे योग्य सेवा बतायें।? उसकी बात सुन कर कुन्ती बोली, "तू मेरे वंश का सबसे बड़ा पौत्र है। समय आने पर तुम्हारी सेवा अवश्य ली जायेगी।" इस पर घटोत्कच ने कहा, "आप लोग जब भी मुझे स्मरण करेंगे, मैं आप लोगों की सेवा में उपस्थित हो जाउँगा।" इतना कह कर घटोत्कच (मनाली से ) वर्तमान उत्तराखंड की ओर चला गया।
घटोत्कच की पत्नी का नाम -
घटोत्कच की पत्नी का नाम अहिलवती या मौरवी था और उनके बेटे का नाम बर्बरीक था. महाभारत के द्रोणपर्व के अनुसार, घटोत्कच के रथ पर जो झंडा था, उस पर मांस खाने वाले गिद्ध दिखाई देता था। उसके रथ में आठ पहिए लगे थे और चलते समय वह बादलों के समान गंभीर आवाज करता था। सौ बलवान घोड़े एस रथ में जुते थे। उन घोड़े के कंधों पर लंबे-लंबे बाल थे, उनकी आंखें लाल थी। घटोत्कच का रथ रीछ की खाल से मढ़ा था। उस रथ में सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र रखे हुए थे। विरूपाक्ष नाम का राक्षस उस रथ का सारथि था।
घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक -
बर्बरीक दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे। भीम के पौत्र बर्बरीक के समक्ष जब अर्जुन तथा भगवान श्रीकृष्ण उसकी वीरता का चमत्कार देखने के लिए आये, तब बर्बरीक ने अपनी वीरता का छोटा-सा नमूना दिखाया। श्रीकृष्ण ने कहा कि यह जो वृक्ष है इसके सारे पत्तों को एक ही तीर से छेद दो तो मैं मान जाऊंगा।
बर्बरीक ने आज्ञा लेकर तीर को वृक्ष की ओर छोड़ दिया। जब तीर एक-एक कर सारे पत्तों को छेदता जा रहा था उसी समय एक पत्ता टूटकर नीचे गिर पड़ा। श्रीकृष्ण ने उस पत्ते पर यह सोचकर पैर रखकर उसे छुपा लिया की यह छेद होने से बच जाएगा, लेकिन सभी पत्तों को छेदता हुआ वह तीर कृष्ण के पैरों के पास आकर रुक गया। तब बर्बरीक ने कहा कि प्रभु आपके पैर के नीचे एक पत्ता दबा है कृपया पैर हटा लीजिए, क्योंकि मैंने तीर को सिर्फ पत्तों को छेदने की आज्ञा दे रखी है आपके पैर को नहीं।
उसके इस चमत्कार को देखकर श्री कृष्ण चिंतित हो गए। भगवान श्रीकृष्ण यह बात जानते थे कि बर्बरीक प्रतिज्ञावश हारने वाले का साथ देगा। यदि कौरव हारते हुए नजर आए तो फिर पांडवों के लिए संकट खड़ा हो जाएगा और यदि जब पांडव बर्बरीक के सामने हारते नजर आए तो फिर वह पांडवों का साथ देगा। इस तरह वह दोनों ओर की सेना को एक ही तीर से खत्म कर देगा। जिससे धर्म और अधर्म की जीत हार तय नहीं हो पायेगी।
इसलिए ब्राह्मण वेषधारी श्री कृष्ण ने बर्बरीक से दान की इच्छा प्रकट की। बर्बरीक ने दान देने का वचन दिया तब श्री कृष्ण ने बर्बरीक से उसका सिर मांग लिया।
खाटू श्याम को हारे का सहारा क्यों कहा जाता है?
बर्बरीक के इस बलिदान को देखकर दान के पश्चात श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को कलियुग में स्वयं के नाम से पूजित होने का वर दिया। आज बर्बरीक को खाटू श्याम के नाम से पूजा जाता है। जहां कृष्ण ने उसका शीश रखा था उस स्थान का नाम खाटू है।
चूँकि बर्बरीक महाभारत युद्द में इस प्रण के साथ जा रहा था कि जो भी हारेगा, वह उसका साथ देगा लेकिन श्री कृष्ण भगवान् ने रोक लिया था।
इसलिए धर्म और अधर्म की लड़ाई या सत्य और असत्य की लड़ाई में, वे आज भी हारने वाले पर कृपा करते है।
लेकिन सत्य और असत्य या धर्म या अधर्म के बारे में जानकारी होना आवश्यक है।
इसलिए "हारे का सहारा ! खाटू श्याम हमारा" कहा जाता है।
विभीषण से कर (Tax) लेने घटोत्कच गया था लंका -
महाभारत के दिग्विजय पर्व के अनुसार, जब राजा युधिष्ठिर ने इन्द्रप्रस्ठ में राजसूय यज्ञ का आयोजन किया तो भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव को अलग-अलग दिशाओं में निवास कर रहे राजाओं से कर (टैक्स) लेने के लिए भेजा। कुछ राजाओं ने आसानी से कर (Tax) दे दिया तो कुछ युद्ध के बाद कर देने के लिए राजी हुए।इसी क्रम में सहदेव ने घटोत्कच को लंका जाकर राजा विभीषण से कर लेकर आने को कहा। घटोत्कच अपनी मायावी शक्ति से तुरंत लंका पहुंच गया। वहां जाकर उसने राजा विभीषण को अपना परिचय दिया और आने का कारण बताया। घटोत्कच की बात सुनकर विभीषण प्रसन्न हुए और उन्होंने कर के रूप में बहुत धन देकर उसे लंका से विदा किया।
घटोत्कच ने की थी पांडवों की सहायता -
वनवास के दौरान जब पांडव गंदमादन पर्वत की ओर जा रहे थे, तभी रास्ते में बारिश व तेज हवाओं के कारण द्रौपदी बहुत थक गई। तब भीम ने अपने पुत्र घटोत्कच को याद किया। घटोत्कच तुंरत वहां आ गया। भीम ने उसे बताया कि तुम्हारी माता (द्रौपदी) बहुत थक गई है। तुम उसे कंधे पर बैठाकर हमारे साथ इस तरह चलो की उसे किसी तरह का कष्ट न हो। घटोत्कच ने भीम से कहा कि- मेरे साथ और भी साथी हैं, आप सभी उनके कंधे पर बैठ जाइए। माता द्रौपदी को मैं अपने कंधे पर बैठा लेता हूं। इस तरह आप सभी आसानी से गंदमादन पर्वत तक पहुचं जाएंगे। पांडवों ने ऐसा ही किया। कुछ ही देर में घटोत्कच व उसके साथियों ने पांडवों को गंदमादन पर्वत तक पहुंचा दिया।घटोत्कच ने भी किया था दुर्योधन से युद्ध -
कुरुक्षेत्र के मैदान में जब पांडव व कौरवों की सेना में युद्ध छिड़ा हुआ था, उस समय घटोत्कच और दुर्योधन के बीच भी भयानक युद्ध हुआ था। जब भीष्म पितामाह को पता चला कि दुर्योधन और घटोत्कच में युद्ध हो रहा है तो उन्होंने द्रोणाचार्य को कहा कि- घटोत्कच को युद्ध में कोई भी पराजित नहीं कर सकता। इसलिए आप उसकी सहायता के लिए जाईए।भीष्म के कहने पर द्रोणाचार्य, जयद्रथ, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण व अनेक महारथी दुर्योधन की सहायता के लिए गए, लेकिन घटोत्कच ने उन्हें भी अपने पराक्रम से घायल कर दिया। घटोत्कच ने अपनी माया से ऐसा भयानक दृश्य उत्पन्न किया कि उसे देखकर कौरवों की सेना भाग गई।
घटोत्कच ने किया था अलम्बुष का वध -
युद्ध के दौरान घटोत्कच और कौरवों की ओर से युद्ध कर रहे राक्षस अलम्बुष में भी भयानक युद्ध हुआ था। अलम्बुष भी मायावी विद्याएं जानता था। घटोत्कच युद्ध में जो भी माया दिखाता, उसे अलम्बुष अपनी माया से नष्ट कर देता था। अलम्बुष ने घटोत्कच को अपने तीरों से घायल कर दिया। गुस्से में आकर घटोत्कच ने उसका वध करने का निर्णय लिया। घटोत्कच ने अपने रथ से अलम्बुष के रथ पर कूद कर उसे पकड़ लिया और उठाकर जमीन पर इस प्रकार पटका कि उसके प्राण निकल गए। यह देख पांडवों की सेना में हर्ष छा गया और वे प्रसन्न होकर अपने अस्त्र-शस्त्र लहराने लगे।दूसरे अलम्बुष का भी वध किया था घटोत्कच ने -
जब कर्ण पांडवों की सेना का संहार कर रहा था। उस समय श्रीकृष्ण ने घटोत्कच को अपने पास बुलाया और कर्ण से युद्ध करने के लिए भेजा। जब दुर्योधन ने देखा कि घटोत्कच कर्ण पर प्रहार करना चाहता है तो उसने राक्षस जटासुर के पुत्र अलम्बुष (यह पहले वाले अलम्बुष से अलग है) को युद्ध करने के लिए भेजा। इस अलम्बुष और घटोत्कच में भी भयानक युद्ध हुआ। पराक्रमी घटोत्कच ने इस अलम्बुष का भी वध कर दिया।दुर्योधन की ओर फेंका था अलम्बुष का मस्तक -
राक्षस अलम्बुष का सिर काटकर घटोत्कच दुर्योधन के पास पहुंचा और गर्जना करते हुए बोला कि- मैंने तुम्हारे सहायक का वध कर दिया है। अब कर्ण और तुम्हारी भी यही अवस्था होगी। जो अपने धर्म, अर्थ और काम तीनों की इच्छा रखता है, उसे राजा, ब्राह्मण और स्त्री से खाली हाथ नहीं मिलना चाहिए (इसलिए मैं तेरे लिए यह मस्तक भेंट के रूप में लाया हूं)। ऐसा कहकर घटोत्कच ने अलम्बुष का सिर दुर्योधन की ओर फेंक दिया।
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ऐसी हुई घटोत्कच की मृत्यु -
जब श्रीकृष्ण के कहने पर घटोत्कच कर्ण से युद्ध करने गया तो उनके बीच भयानक युद्ध होने लगा। घटोत्कच और कर्ण दोनों ही पराक्रमी योद्धा थे, इसलिए वे एक-दूसरे के प्रहार को काटने लगे। इन दोनों का युद्ध आधी रात तक चलता रहा। जब कर्ण ने देखा की घटोत्कच को किसी प्रकार पराजित नहीं किया जा सकता तो उसने अपने दिव्यास्त्र प्रकट किए। यह देख घटोत्कच ने भी अपनी माया से राक्षसी सेना प्रकट कर दी। कर्ण ने अपने शस्त्रों से उसका भी अंत कर दिया। इधर घटोत्कच कौरवो की सेना का भी संहार करने लगे। यह देख कौरवों ने कर्ण से कहा कि तुम इंद्र की दी हुई शक्ति से अभी इस राक्षस का अंत कर दो, नहीं तो ये आज ही कौरव सेना का संहार कर देगा। कर्ण ने ऐसा ही किया और घटोत्कच का वध कर दिया।घटोत्कच की मृत्यु से प्रसन्न हुए थे श्रीकृष्ण
जब घटोत्कच की मृत्यु हो गई तो पांडवों की सेना में शोक छा गया, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न हो गए। अर्जुन ने जब इसका कारण पूछा तो श्रीकृष्ण ने कहा कि- जब तक कर्ण के पास इंद्र के द्वारा दी गई दिव्य शक्ति थी, उसे पराजित नहीं किया जा सकता था। उसने वह शक्ति तुम्हारा (अर्जुन) वध करने के लिए रखी थी, लेकिन वह शक्ति अब उसके पास नहीं है। ऐसी स्थिति में तुम्हे उससे कोई खतरा नहीं है। इसके बाद श्रीकृष्ण ने ये भी कहा कि- यदि आज कर्ण घटोत्चक का वध नहीं करता तो एक दिन मुझे ही उसका वध करना पड़ता क्योंकि वह ब्राह्मणों व यज्ञों से शत्रुता रखने वाला राक्षस था। तुम लोगों का प्रिय होने के कारण ही मैंने पहले इसका वध नहीं किया था।Guest Post by - Mahapuran.com
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